नैन के कोरों में
बसा एक सपना
न जाने कब अपना सा लगने लगा
कुछ पता ही नहीं ___
कहीं वो ही लम्हा तो नहीं
कि जब तेरी आंखों में मेरे लिए
बेहिसाब मुस्कुराहटें होती थीं
या फिर,
तुम्हारी बातों ने रह-रहकर
मेरी कानों को छुआ था
आज भी जब इसका हिसाब करने बैठती हूं
तो कोई छोर ही नहीं मिलता
याद आती है तो बस वो मुस्कुराती
कुछ बोलती सी आंखें
या फिर वो छुअन...
बसा एक सपना
न जाने कब अपना सा लगने लगा
कुछ पता ही नहीं ___
कहीं वो ही लम्हा तो नहीं
कि जब तेरी आंखों में मेरे लिए
बेहिसाब मुस्कुराहटें होती थीं
या फिर,
तुम्हारी बातों ने रह-रहकर
मेरी कानों को छुआ था
आज भी जब इसका हिसाब करने बैठती हूं
तो कोई छोर ही नहीं मिलता
याद आती है तो बस वो मुस्कुराती
कुछ बोलती सी आंखें
या फिर वो छुअन...
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